कोरोना संकट और लॉकडाउन: पक्षियों की रोचक दुनिया का अनूठा जीवन

पहाड़ों में रहने वाले हर इंसान को गर्मियों के मौसम का उतना ही इंतजार होता है, जितना मैदानों में रहने वाले लोगों को गरम दिनों के बाद आने वाली बारिश का। मेरा काम कुदरत में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं के बारे में खोज-बीन करना, उनकी तस्वीरें लेना और जंगल में मरी हुई चीजें जैसे कीड़े-मकोड़े, हड्डियों, कंकालों, चिड़ियों और मधुमखियों के घरों आदि को इकट्ठा करने का है। हिमाचल के ठंड के मौसम के बाद, हर साल की तरहां इस साल भी मुझे गर्मियों का इंतजार था। इस साल की शुरुआत तो बाकी बीते हुए सालों की तरह ही हुई थी। नए साल की मंगल कामना से भरे हुए संदेश, फोन पे दोस्तों, रिश्तेदारों को बधाइयां देना-लेना वगैरह-वगैरह। लेकिन मार्च का महीना हमारी प्रजाति के सभी लोगों के लिए कुछ अजीब सी शुरुआत ले के आया। हम में से किसी को ये एहसास तक भी नहीं था के हम अपनी पूरी गर्मियां घर में ही बिताने वाले हैं।

मैंने अपने घर में कैद, अपने कमरे की खिड़की से बहार होने वाली हरकतों को देखते हुए अपना ज्यादातर समय काटा। इंसानों को छोड़ के, लगभग सभी जीव मजे में थे। जो कुत्ते कभी सड़कों पे चलती हुई फर्राटेदार गाड़ियों से डर के कोने में दुबके रहते थे, उन्हीं सड़कों पे अपने पूरे शरीर को फैला के सोते हुए दिखे। ऐसा ही कुछ, दुनिया के बहुत अलग-अलग जगह पे भी हुआ जहां जंगली जानवर पुरे ठाट-बाठ से सड़कों पे घूमते हुए दिखे। आप सभी की तरहां मैंने भी इन गर्मियों में करने के लिए बहुत से काम सोच रखे थे। इस साल की सूची में सबसे ऊपर मैंने सोचा था के अपने गांव में खिलने वाले जंगली फूलों (जो की हर साल बस एक ही बार खिलते है) की तस्वीरें लूंगा और साथ में उनको सूखा के हरबेरियम (सूखी वनस्पतियों का संग्राह) भी बनाऊंगा। हिंदुस्तान में पेड-पौधों की लगभग 47000 प्रजातियां हैं, इनमें से 3256 प्रजातियां हिमाचल प्रदेश में पाई जाती हैं। मेरा ये काम अब अगले साल ही संभव हो पाएगा, शायद।

पहाड़ों में गर्मियों का मौसम वैसे तो कुछ ही महीनों (अप्रैल से जून तक) के लिए आता हैलेकिन इन्हीं तीन महीनो में भिन-भिन प्रकार के जीवन देखने को मिलते है। यलो हिमालयन रास्पबेरी, जिसे लोकल भाषा में आंंखे कहा जाता है, केवल इसी दौरान ही जंगल में फल देती है। शहतूत के पेडों पर फल, बुरांश के पेड़ो पर फूल और जमीन पे उगने वाली एक बहुत ही दुर्लभ मशरूम जिसे गुच्छी कहते हैंं, इसी दौरान निकलते हैंं। पेड़ों और छोटे पौधों के नए पत्तों पे तितलियां-पतंगे अंडे देती है और इन में से निकलने वाली ढेरों इल्लीया इन्हींं पत्तों को खाती है। हिमाचल में तितलियों की लगभग 107 प्रजातियां हैं। मैं, अभी तक बहुत ही कम तितलियों को देख पाया हूं क्यूंकि ये बहुत ही तेजी से इधर से उधर उड़ जाती है। लेकिन इनकी इल्लियों को हरे पत्ते खाता देखना मुझे बहुत ही ज्यादा पसंद है। कभी-कभी तो मैं आधा दिन इनकी तस्वीरों और वीडियो लेने में ही निकल देता हूं। लेकिन इन इल्लियों को मुझसे भी ज्यादा ध्यान से बहुत से पंछी देखते हैं।

काले रंग की एक चिड़िया जिसको भुजंगा (ड्रोंगो) के नाम से जाना जाता है, तितलियों को पकड़ने में माहिर होती है। इन्हीं मौसम में यह चिड़िया कौओं को भगाती हुई भी नजर जाती है, क्यूंकि ये मौसम इनके बच्चे देने का होता है। कौआ बाकी चिड़ियों के अंडे या उड़ ना पाने वाले चूजों का शिकार करने में माहिर होता है। वह बहुत चालाकी से अपनी नजरें घोसलों पे रखता है, और जब चिड़िया खाना लेने के लिए घोसलों से दूर जाती है तो ये महाशय मोके पे चौका मारने पहुंचता है। लेकिन सफलता बहुत ही मुश्किल से मिल पाती है। इसके बहुत से कारण हो सकते है। चिड़िया वैसे तो एक दूसरे से दूरी पे ही घर बनती है लेकिन इतना भी दूर नहींतो जब ये मौका परस्त कौआ किसी एक घोसले की तरफ जाता है तो आसपास वाली चिड़िया भी चौकन्नी हो जाती है और कौए को भगाने में एकजुट हो जाती हैं।

हाल ही में मेरे घर की दीवार पर टंगे हुए लकड़ी के एक घर को (जो की चिड़ियों के लिए ही बनवाया था मेरे पिताजी ने) मैना चिड़िया के एक जोड़े ने अपने पांच बच्चों को पालने के लिए चुना। पहले तो इनकी तरफ इतना ध्यान नहीं गया क्यूंकि उनकी चूं-चूं की आवाज इतनी ज्यादा नहीं आया करती थी। लेकिन जब वो कुछ बड़े हुए तो मेरा ध्यान उनके घर की तरफ गया, साथ में उनके मां-बाप का ध्यान भी मेरी तरफ ज्यादा हो गया। जब-जब में उनके घर के नीचे से गुजरता था वो दूर से ही के-के-के की आवाज निकालने लग पड़ते थे, कई बार तो वो मेरे सर के ऊपर से बहुत ही नजदीक से उड़े। लेकिन धीरे धीरे मैंने उनके पुरे परिवार के रहने के तरीके को समझ लिया। रात को उनके घर के नजदीक जाने को मनाही हो गई थी। कई बार लगता है के मानो ये किसी खुफिया अभियान का हिस्सा हों... मुझे हमेशा से ये लगता था के इंसान के बच्चों को पालना बहुत ही मुश्किल काम है। लेकिन जब मैंने इस मैना के जोड़े को अपने पांच भूखे बच्चों का पेट हर चार से पांच मिनट बाद भरते हुए देखा तो मेरा चेहरा देखने वाला हो गया था। हर बार दोनों अपनी चोंच में अलग-अलग तरह के कीड़े लाकर इनके मुंह में ठूसते रहे। मैंने दोपहर से अंधेरा होने तक इनको कैमरे में कैद करने का सोचा। इनके खाने में ये सब चीजें शामिल थी, हरे, भूरे, पीले, सफ़ेद, काले रंग की ढेर सारी इल्लियांं, झींगुर, सूखे हुए केंचुए, चेरी का फल, ताज़ा टिड्डे, पतंगे। एक नई चीज जो मुझे अपनी बनाई गई वीडियो में देखने को मिली वो यह थी कि चिड़िया अपने बच्चों को पत्थर के टुकड़े भी खिलते हैंं।

अगर इन भुक्खड़ बच्चों के एक दिन के खाने का मेनू कार्ड बनाया जाए तो वो कुछ इस तरहं का होगा: (सुबह छह से शाम के छह बजे तक) इल्लियांं: औसतन हर दस मिनट में तीन बार इल्लियांं खिलाना। हर बार में औसतन छह इल्लियांं, तो दस मिनट में अठारह इल्लियांं चट। हर घंटे में एक सोह छयासी इल्लियांं। इस तरह बारह घंटे में दो  हजार दो सोह बत्तीस इल्लियांं। इनमे कुछ सोह झींगुर, टिड्डे, पतंगे भी जोड़ दे तो शायद आप अंदाजा लगा सकते है कि बिना बाजुओं के भी ये इतना कुछ कर लेती हैं। इसी तरह एक और लंबी सफेद पूंछ वाली चिड़िया जिसको दूधराज (एशियाई पैराडाइस फ्लैकात्चेर) कहते हैं,  के जोड़े को इसी मौसम में दोपहर के वक्त एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जाते हुए देखा जा सकता है। नर, हलके पीले-भूरे रंग की मादा के पीछे भागता रहता है, और ऐसा लगता है के कोई जंगल में सफेद रंग के झंडे को बीच-बीच में लहरा रहा हो। बेचारे इस सफेद सुंदर पक्षी का भी वही हाल होगा जो इस मैना का हुआ (मेरा मतलब अपने भुख्खड़ बच्चो का पेट पालने से है)

इस समय अपने परिवार को और आगे बढ़ाने का जिम्मा एक और चिड़िया लेती है, जिसको देख कर ऐसा लगता हो मानो वो धुप से बचने के लिए आंखों में काला चश्मा पहने घूमती हो। मुझे इनके चेहरे को देख कर सच में बहुत हंसी आती है, कई बार लगता है के मानोंं ये किसी खुफिया अभियान का हिस्सा हों, या ये इतना ज्यादा तनाव में रहती है कि इनकी आंखों के आस-पास काले दाग (डार्क सर्किल) पड़ गए हों। मैं बात कर रहा हूं मोर लिटकुरी (वेरडिटेर फ्लाईकेचर) नामक एक और चिड़िया की। इस जोड़े को जमीन से कीड़े-मकोड़े चुनते हुए देखा जा सकता है। पूरा दिन काम करके ये सभी चिड़िया जरूर थक जाती होंगी क्यूंकि शाम होते होते अक्सर मैंने इन्हे पानी के छोटे -छोटे गढ़ो में नहाते हुए, पेड़ों के सबसे ऊंची छोटी पे, बिजली की तारों पे आराम फरमाते हुए देखा है। मैं भी इनको दिन भर देख के जब शाम को चाय पिने के लिए बाहर बैठता हूं तो अबाबील (बार्न स्वालो) चिड़िया जो अक्सर चार से पांच के झुंड में होती है, तारों पे बैठ जाती है। इनको देख के ऐसा लगता है के जैसे ये अपनी थकान मिटने के साथ साथ अपने आप को सवारती भी रहती है।  कभी कभी तो मैं ये भी सोचता हूं के अगर इनके हाथ होते और ये भी कंघी का उपयोग करते, तो कितना ही मजा आता इनको देखने में।

इन सभी लाजवाब, बेहद मेहनती और समझदार पक्षियों को देख कर मैंने अपना ये समय बहुत ही अच्छी तरह से गुजार लिया। लेकिन एक बात मेरे मन में बहुत ही चिंता पैदा करती जा रही है, और वो है हमारे आस पास काटे जा रहे पेड़ों की। इन सभी उड़ने वाले पक्षियों, जो की  लाखों-करोड़ो सालो से और यहाँ तक की हमारी प्रजाति के आने के भी लाखों सालो के पहले से इन्हीं पेड़ों पे अपना परिवार बनाती आई हैं, हम बिना उन से पूछे, बिना उनके बारे में सोचे, सिर्फ एक तेज धार वाले उपकरण को इस्तेमाल कर के कुछ ही पलों में उस पेड को जिसकी उम्र शायद हमसे भी ज्यादा हो, बहुत बेरहमी से काट फेंकते हैं। मुझे डर लगता है अपनी आने वाली पीढ़ी के बारे में सोच कर, के क्या वो भी कभी मेरी तरह शाम को चाय पीते हुए इन चिड़ियों को देख पाएंगे भी या नहीं?